विराम

कुछ भी मेरा है ही नहीं फिर क्यों अभिमान करती हूँ
आज मैं अपने हाथों से अपना सर्वस्व दान करती हूँ
भटकती अमृत की एक बूंद चखने की चाह में मगर,
हर तरफ विषय विष का हलाहल पान करती हूँ
भोर से भोले बचपन को दोपहर कहर में ला झुलसा
दिन ढले हो बेफिक्र रात अब फकीरी में शाम करती हूँ
एक बिंदु के विस्तार में मैं मेरे के प्यार में
हुई जहां से थी शुरू अब वही विराम करती हूँ
आज मैं अपने हाथों से अपना सर्वस्व दान करती हूँ