चुप

चुप होना चाहती हूं बिल्कुल
बाहर से और अंदर से
एक शब्द भी निकल ना जाए
मन समंदर मंथन से
और बैठ किसी आसन पर यूं ही
ऐसे डूबू ध्यान में
हर लम्हा अब बीते मेरा
बस अपनी पहचान में
संसार में आ संसारी होकर
ढेरों चोले ओढ़ लिए
संस्कारों को अंतिम कर
कितने मटके फोड़ दिए
यहां दोषी खुद में बैठा है
जो वो दोषी सबको पता है
हर बात में दोस्त इसी का
इसको नज़र नहीं आता है
झाड़ा पौंछा सहलाया कोसा
एक ठोकर का अंजाम है ये
हर मोड़ पर इसको खाना
मेरा रोज़ का काम है ये
बस अब चुप होना चाहती हूं
बिल्कुल बाहर से और अंदर से